इन चोगाठों को समेत दरवाजे उखड़ जाना चाहिए था अब तलक ....
गुमराही एक मुद्दत हो गई, खिड़कियों से इंतजार करते हुए.....!!
इन अलमारियों से असल किताबें उतर जानी चाहिए थी अब तलक...
एक जमाना बीत गया जालिम, दीमकों का बाजार खुले हुए....!!
इन झीलों से अब तलक तो नमक बहकर आना चाहिए था....
मुझे एक नई शाम ढल आई , अधभरे घाव खोले हुए......!!
उस परदेशी को लौट आना चाहिए था सफर से अब तलक....
कई बरस बीत चले है राही, मेरी मंजिल छूटे हुए.....!!
उन सैतानों का भी तो कब्जा होना चाहिए था अब तलक.....
कई दौर गुजर गए है, इंसानों की इंसानियत मरे हुए...!!
अति सुन्दर रचना
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