रह रह कर ये उम्मीदें जगती है...
हाथ तो उठाएं मग़र, अभी रस्ते में हैं
चेतना बदलते वक्त की मांग तो है
मगर आंखें बंधी है और किताब बस्ते में है...!!
यहां निरपराधी मारे जाते है
बचते है तो बस सफेद पहने जाहिल
ये पेड़ अगर तुमसे कटता है तो काट लो
तुम्हारा खून भी गिरते पेड़ की जानिब सस्ते में है...!!
ये अंधकार ले डूबेगा प्रकाश को
फिर उम्मीदें नही रहेगी किसी को
पकड़ो इसे, हाथ लगाओ, मदद करो
ये आदमखोर सफेदपोशी आज हमारे दस्ते में है..!!!
चेतना बदलते वक्त की मांग तो है
मगर आंखें बंधी है और किताब बस्ते में है...!!
उठो कि देर ना हो जाए,
उठो कि तुम्हारी सांसें ढेर ना हो जाए...
उठो कि तुम्हारी गिरेबान तक हाथ ना पहुंचे...
संभलों ए भविष्य की आधारशिलाओं....
तुम्हारा हाल ए मुस्तकबिल खस्ते में है....
चेतना बदलते वक्त की मांग तो है
मगर आंखें बंधी है और किताब बस्ते में है...!!
अतिसुंदर कविता👍👍
ReplyDeleteWah wah
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