परखो अपने “विचार” को, क्योंकि वे “शब्द” बनते हैं।
परखो अपने “शब्द” को, क्योंकि वे “कार्य” बनते हैं।
परखो अपने “कार्य” को, क्योंकि वे “स्वभाव” बनते हैं।
परखो अपने “स्वभाव” को, क्योंकि वे “आदत” बनते हैं।
परखो अपने “आदत” को, क्योंकि वे “चरित्र” बनते हैं।
परखो अपने “चरित्र” को, क्योंकि उससे “जीवन आदर्श” बनते हैं।
परखो अपने “शब्द” को, क्योंकि वे “कार्य” बनते हैं।
परखो अपने “कार्य” को, क्योंकि वे “स्वभाव” बनते हैं।
परखो अपने “स्वभाव” को, क्योंकि वे “आदत” बनते हैं।
परखो अपने “आदत” को, क्योंकि वे “चरित्र” बनते हैं।
परखो अपने “चरित्र” को, क्योंकि उससे “जीवन आदर्श” बनते हैं।