किन जंगलों से निकला था, किन रेगिस्तानों में आ गया हूं....
किन कागजों के बरके पलटे मैने....
....किन पत्थरों से ठोकर खा गया हूं...
किसके हिस्से का मुकद्दर चुराया मैंने.....
किसके हिस्से का वक्त चुराया मैंने....
किन जुर्म की दहलीजों पर कदम पड़े मेरे...
किन पथरीली सलाखों में आ गया हूं...
किन कागजों के बरके पलटे मैने....
....किन पत्थरों से ठोकर खा गया हूं...!!
किन शहरों को वीरान कर आया मैं...
किन दरखतों की छांव चुरा लाया हूं....
किसकी सल्तनत में बगावत की मैने...
किसकी जिंदगी से रस निचोड़ लाया हूं...
किन मरीचिकाओं का वहम खाया मैने...
किन उफानों का गलत अंदाजा लगा गया हूं.....
किन कागजों के बरके पलटे मैने....
....किन पत्थरों से ठोकर खा गया हूं...
किन जंगलों से निकला था....
किन रेगिस्तानों में आ गया हूं....!!
शोर शराबे के बीच पता नहीं
किस खामोशी में आ गया हूं.....
किन्हें खबर है की खबरें खामोशी में दबी है होठों तले......
यहां अकेला सा पड़ गया हूं भीड़ भाड़ वाले शहर में.....
ना जाने किस बस्ती की राहों में भटक कर आ गया हूं ......!!
किन कागजों के बरके पलटे मैने....
....किन पत्थरों से ठोकर खा गया हूं...
घंटों वीरान इंसानी जंगलों में भटकता रहता हूं.....
आसमान के नीले सुर्ख रंगों को पढ़ता रहता हूं....
ये बदलती गर्म हवाओं का मिजाज भी ठंडा हो गया है.....
न जाने किस तपिश की आगोश में आ गया हूं....
किन कागजों के बरके पलटे मैने....
....किन पत्थरों से ठोकर खा गया हूं...
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