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Wednesday, 25 May 2022

कांच

कांच....

कोरा...

सफेद .. 

पारदर्शी.....

लिपटे जो रजत...

बन आईना...

तुम्हे, तुम्ही से ही तो मिलाता है.....

किसी आंतरिक ज्योति सा .. 

सफेद नियत वाले किसी दीपक की तरह...!!


पत्थर जो तुमने....

मारा है सच पर.....

पत्थर जो तुमने....

फेंका है अपने ही अक्ष पर....

ये बिखरेगा मन ही मन लहू की एक एक बूंद सा...

ये धार जो तुमने लगाई है,

टूटे काँच को ...;

ये तुम्ही को,

अफ़सोस ...........तुम्ही को खायेगा....!!

ये कांच जो बिखरा है ........अफ़सोस तुम्ही को खायेगा...!!

सहेजो  इस रेत को

प्यार से...दुलार से...

वरना चुभेगा...और बस तुम्हीं को चुभेगा...!!

अफसोस बस तुम्हीं को चुभेगा.......!!!!!

उतारो अपने झूठ को....

और समेट  लो ...... 

वक्त के पर्दे  में ....

ये चुभेगा तुम्हारे बदन को ......

अंदर ही अंदर .....


किसी नासूर सा .. ...

और .......अफसोस ........ये झूठ....... बस तुम्हीं को चुभेगा 

ये कांच......... बस .........तुम्ही को मन  ही मन खाएगा....


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