विधि विकास है, संसोधित विधि भी विकास है, मगर विधियों में बार बार किया गया संसोधन पतन है। पतन एक स्तरीय अवस्था है , मगर इस अवस्था का ठहराव पश्च गमन है
आजादी अधिकार है, मग़र छूट किसी दूसरे की आजादी का हनन है। अधिकार समानता के अंश से बना है, मगर इसमे असमानता के महीन अंश विद्यमान है। असमानता अधिकार में छूट का हिस्सा है, और छूट की एक सीमा होती है, सीमा का उलंघन अगर दण्डनीय ना हो तो असंतोष की भावना उत्त्पन्न होती है। असंतोष पाप का प्रथम चरण है, पाप और दुष्कृति में बाल मात्र का अंतर है, यही अंतर आजादी की सीमा है।
सीमा लांघना दुष्कृति है और दुष्कृति दण्डनीय होती है। आजादी में भी असमानता का अंश व्यापत है और जहाँ आजादी होगी वहां अधिकार होना अवश्यम्भावी है और यही अधिकार विकास की राह का रोड़ा बनता है। इसलिए अधिकार अगर संतोष भावना की बुनियाद पर टिके हों तो अवश्य ही मानव जाति पतन की राह पर चलने को आतुर है
(उक्त विश्लेषण की विश्लेषणात्मक गहराई स्वविवेक पर निर्भर करती है)
शर्मा दीपू की कलम से........💐
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