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Wednesday, 5 February 2020

हां मैं मानव हूं.....


मैं जंग हूँ,
मैं मलंग हूँ,
मैं बाढ़ का बहता नीर हूं....
मैं मातृहन्ता, मैं मनोरोगी,
मैं परजीवी हूं सुखभोगी
मैं  बुद्धि घमंडी अमीर हूँ
मैं बाढ़ का बहता नीर हूं....
हां मैं मानव हूं, हां मैं दानव हूं..
मैं कपट शिरोमणि , मैं विनाशपाल
मैं जीव ,धरा का संकट काल
मैं गरल रंजित इक तीर हूँ
मैं  बुद्धि घमंडी अमीर हूँ
मैं ही कोरोना, मैं ही इबोला..
मैं करता सब हूं बन भोला...
मैं काल को आहट देने वाला,
मैं ब्रह्मज्ञानी इक चीर हूं
मैं  बुद्धि घमंडी अमीर हूँ....!!
अर्थ--
मलंग- बेपरवाह,
मातृहन्ता- माँ की हत्या करने वाला
परजीवी- दूसरों पर जीने वाला
गरल रंजित- जहर से सना हुआ
ब्रह्मज्ञानी- सब जानने वाला
चीर- लिबास, पर्दा
भावार्थ-
उपरोक्त पंक्तियाँ मानव जाति और प्रकृति के मध्य चल रहे अंतर द्वंद को साकार करती है,
मानव कहता है कि मैं एक जंग हूं जो किसी की परवाह नही करता, मैं बाढ़ का पानी हूँ जो सबको बहा कर ले जाता है!
मैं अपनी माँ(प्रकृति) को मारने वाला मनोरोगी हूं,
मैं दूसरों के सहारे सुख से जीवन जीता हूँ,
मैं बिना बुद्धि का होने के बावजूद बुद्धि पर घमण्ड करने वाला अमीर हूँ!
मैं छल कपट में महारथी हूँ, मैं विनाश को पालने वाले हूं
मैं जीवों और पृथ्वी के लिए संकट हूँ
मैं जहर से सना एक तीर हूं।।
मेने ही इबोला ओर कोरोना जैसे काल को भोला बनकर आमन्त्रित किया,
पर मैं तो सब कुछ जानने वाला एक लिबास हूँ..
हां मैं मानव ही तो हूं, हाँ मेँ दानव ही तो हूँ


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