अंधेरी रात है,
यहां सन्नाटा पसरा है....
हाथ से हाथ भी ना दिखे,
ऐसा घना कोहरा है....
मुझे डर लग रहा है...
तुम हाथ थामे रखना....
छोड़ ना देना...
इस अंधेरी निशा में खोना नहीं चाहती...
ना खुद को
ना तुम्हें...!!
ये अंधेरा काट रहा है...
रास्ता हम दोनो का....
ये निर्लज्ज कोहरा भी तो
मेरी गालों को लाल कर रहा है....
तुम हाथ ना छोड़ देना...
ये कोहरा मुझे छेड़ रहा है....
मुझे अंधेरे से ज्यादा कोहरे से डर लग रहा है....
सुनो वो सामने...
कुछ तो आहट हुई है...
कुछ तो रोशनी चमक रही है...
ये रोशनी कुछ जानी पहचानी है....
अरे ये तो मेरे घर की रोशनी है....
अरे ये तो मेरा घर ही है....
तुम तो फरिश्ता हो हमराही मेरे...
कैसे धन्यवाद करूं तुम्हारा....
तुम मेरा हाथ थामकर...
मुझे कोहरे से निकाल लाए...
हो कौन तुम??
नाम क्या है तुम्हारा??
कहां रहते हो मुसाफिर??
...
...
कौन मैं?
मेरी बात कर रही हो?
अरे मैं तो मुसाफिर हूं....!!
मैं भटकता रहता हूं...!!
मैं रास्ता दिखाता हूं...
पथ से भटके लोगों को....
मैं हर व्यक्ति के अंदर रहता हूं....
मैं इस अंधेरे से बाहर निकालने का कार्य करता हूं...
मैं आईने में भी मिल जाता हूं...!!
मेरा हाथ थामने वाले को मैं घने कोहरे से बाहर ले आता हूं....
तुम ने...
जब एकांत में बैठकर मुझे याद किया...
मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया...
ओर प्रण किया, की तुम्हे रास्ता दिखाऊंगा...
घर छोड़ कर आऊंगा...
अब मत भटकना...
भटको तो मुझे याद कर लेना....
...
मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं....
आत्मबल ' है नाम मेरा.!!
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