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Thursday, 20 January 2022

बूँद

 कंपकंपाती ओस की बूंदे............. जहर हो गयी....

कंपकंपाती ओस की बूंदे............. जहर हो गयी

छुआ जो किसी ने हल्के से........ जमीं पर शहर हो गयी....

कंपकंपाती ओस की बूंदे............. जहर हो गयी

टूटना , बिखरना, सिमटना, समेटना चलता रहता है

मग़र ये बूंद ऐसी बिखरी ठंडे पहर में........कि कहर हो गयी....

कंपकंपाती ओस की बूंदे............. जहर हो गयी

ए भोले पंछी, अब तो लौट आ घोसले में.......

देख शाम हुई थी.....दो पहर हो गई....!

कंपकंपाती ओस की बूंदे............. जहर हो गयी

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